Granth

Granth (ग्रन्थ)

जगद्‌गुरू श्रीमद्‌ वल्लभाचार्य श्री महाप्रभुजी एवं सम्प्रदाय के विभिन्न आचार्यों ने अनेकों ग्रन्थों की रचना की है जिनमें साम्प्रदायिक वैष्णवों के शिक्षणार्थ श्री महाप्रभुजी के सोलह ग्रंथ पुष्टि भक्तिमार्ग में प्रचलित है जिन्हें सम्प्रदाय में षोडशग्रन्थ के नाम से जाना जाता है, जिनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है –

(१) श्रीयमुनाष्टकम्‌ – इसमें पुष्टिरस – प्रदायिनी श्री यमुनाजी के आधिभौतिक, आध्यात्मिक एवं आधिदैविक रूपों का तथा श्रीयमुनाजी के अष्टविध असाधारण ऐश्वर्यों का वर्णन है। श्री यमुनाजी पुष्टि जीव के प्रभु – प्राप्ति में प्रतिबन्ध करने वाले समस्त दोषों की निवृत्ति करते हैं। उनकी कृपा से स्वाभाव – विजय होकर प्रभु श्रीकृष्ण की भक्ति तथा प्रेम का अधिकार प्राप्त कर जीव पुष्टिमार्ग में प्रवेश की योग्यता प्राप्त करता है। यमुनाष्टक पुष्टिमार्गीय भक्तों के लिए मंगलाचरण रूप है। यमुनाष्टक के रूप में स्वयं श्री महाप्रभुजी ने श्रीयमुनाजी की वन्दना तथा स्तुति की है।

(२) बालबोध – इस ग्रन्थ में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरूषार्थों को ईश्वर विचारित और जीव विचारित दो श्रेणियों में वर्गीकरण करके विभिन्न मोक्षमार्गों के सिद्धान्तों का संग्रह रूप में सामान्य परिचय है। इसके द्वारा अन्य मोक्ष मार्ग की सीमाएँ ज्ञात हो जाती है, जिससे यह अर्थ ग्रन्थ महाप्रभुजी के सिद्धान्तों और उनके मार्ग की ओर जाने की तीव्र उत्कण्ठा जगाता है।

(३) सिद्धान्त मुक्तावली – महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य ने इस ग्रन्थ में भागवतजी के आधार पर स्थापित अपने सिद्धान्तों के गुप्त रहस्यों को प्रकट किया है। तदनुसार परब्रह्म श्रीकृष्ण की सेवा ही जीव का सनातन परम कर्तव्य है। चित्त को प्रभु में पिरो देना, प्रभु श्रीकृष्ण के साथ तन्मय हो जाना ही सेवा है। यह मानसी सेवा ही उत्कृष्ट है, जिसकी प्राप्ति के लिए अपने तन और अपने धन को भी श्रीकृष्ण सेवा मे लगा देना चाहिए। परमानन्द की प्राप्ति तो केवल भगवान श्रीकृष्ण की सेवा से ही संभव है। 

(४) पुष्टिप्रवाहमर्यादाभेद- इस ग्रन्थ में पुष्टि, प्रवाह और मर्यादा मार्गों तथा पुष्टि, प्रवाही और मर्यादी जीवों का विवेचन हैं। इसके अनुसार पुष्टि जीवों की सृष्टि भगवान्‌ के श्रीअंग से भगवत्‌ रूप की सेवा के लिए ही हुई है और उनके फल एकमात्र प्रभु ही है। यदि पुष्टि जीव से भगवत्‌ – सेवा न हो तो उसका अस्तित्व ही निरर्थक हो जाता है।

(५) सिद्धान्तरहस्यम्‌ – इस ग्रन्थ में महाप्रभुजी स्पष्ट करते हैं कि भगवान ने स्वयं यह आज्ञा की है कि जीवों को ब्रह्मसम्बन्ध कराओ। इससे उनके सभी दोषों की निवृत्ति होगी और उसके बाद हर वस्तु भगवान्‌ को समर्पित करके प्रसाद के रूप में ही ग्रहण करने से भविष्य में दोषों की सम्भावना भी नहीं रहेगी। प्रभु को समर्पित होने से वस्तुएँ भगवदात्मक हो जाती है। वे दोषयुक्त नहीं रहती। यह श्रीवल्लभाचार्य के पुष्टिमार्ग का अत्यन्त गूढ़ रहस्य है।

(६) नवरत्न – इस ग्रन्थ में श्री वल्लभाचार्यजी आज्ञा करते है कि जो जीव प्रभु को आत्मसमर्पण कर देता है, उसके मन में यह दृढ विश्वास जाग जाना चाहिए कि प्रभु सब निज – इच्छा से ही करेंगें। जो अपने प्राणों को कृष्णमय बना लेते हैं, उनके जीवन में चिन्ता का प्रवेश कैसे हो सकता है? वे हर स्थिति को प्रभु की लीला मानते हुए निरर्थक चिन्ताओं में समय न खोकर, प्रभु के प्रति तन्मयता न छोडकर निरन्तर अष्टाक्षर मन्त्र का स्मरण करते हुएजीवन यापन करते हैं। 

(७) अन्तःकरणप्रबोध – यह ग्रन्थ हमें बताता है कि जीव भगवान्‌ का सेवक है। उसका धर्म यह है कि वह भक्तिपूर्वक अपना सर्वस्व प्रभु को समर्पित करके कृतार्थ और निश्चिन्त हो जाए। सेवक अपने धर्म का पालन करे तो प्रभु उसका परमकल्याण करेंगें ही। प्रभु जिसे अंगीकृत कर लेते हैं, उसका कभी परित्याग नहीं करते। अंगीकृत जीव के समस्त दोषों की निवृत्ति होकर उसे उत्तमता और भगवदीयता प्राप्त होती है, इसमें कोई संदेह नहीं है। उसका कभी अनिष्ट नहीं होता, उसकी लौकिक गति नहीं होती।

(८) विवकधैर्याश्रय – श्री महाप्रभुजी आज्ञा करते है कि भगवत्सेवा में विवेक, धैर्य और आश्रय अत्यन्त उपयोगी है। विवेक का अर्थ है प्रभु निज इच्छा से ही सब करेंगे, यह निश्चय।

धैर्य का तात्पर्य है – मृत्युपर्यन्त आधिभौतिक, आध्यात्मिक और आधिदैविक त्रिविधि दुःखों को सहन करते हुए भी भगवत्‌ सेवा में हृदय को स्थिर रखना।

आश्रय का अर्थ है – इस लोक में और परलोक में हर स्थिति में श्रीहरि ही हमारे आश्रय स्थल है, यह दृढ निष्ठा अशक्य व सुशक्य कैसी भी स्थिति क्यों न हो भगवान्‌ श्रीकृष्ण का आश्रय ही सदैव हितकारक है। अपने हृदय में सदैव ऐसी शरण भावना बनाये रखना चाहिए। कलियुग में अन्य सभी साधन दुःसाध्य हो गये हैं, प्रभु के चरणों की शरण ही हमारा मार्ग है और वही हमारा कर्त्तव्य भी है, यही साधन भी है और यही साध्य भी।

(९) कृष्णाश्रय – इस ग्रन्थ में श्री महाप्रभुजी आज्ञा करते हैं कि कलियुग में देश, काल, द्रव्य, कर्ता, मंत्र और कर्म शुद्ध नहीं हैं, अतः उनसे पुरूषार्थ-सिद्धि नहीं हो सकती। ऐसी स्थिति में भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही एकमात्र आश्रय हैं और वे ही इस लोक तथा परलोक के साधन हैं। उन्हीं का आश्रय करना चाहिए।

(१) चतुःश्लोकी – इस ग्रन्थ में उपदेश है कि पुष्टिमार्गीय साधन के लिए श्रीकृष्ण का भजन अर्थात्‌ सेवा ही धर्म है। श्रीकृष्ण स्वयं ही अर्थ रूप है। श्रीकृष्ण को सर्वात्मना हृदय में धारण करना ही सच्चा काम है और श्रीकृष्ण के चरणों को सदैव स्मरण – भजन (सेवा) और सर्वात्मना उनका बन जाना ही मोक्ष है। इस प्रकार भक्त के चारों पुरूषार्थ श्रीकृष्ण से सम्बद्ध है।

(११) भक्तिवर्धिनी – यह गूढ़ तत्व निरूपण करने वाला भगवत्‌ प्रेम रूपी बीज भाव, त्याग, श्रवण और कीर्तन से दृढ होता है तथा भगवत्‌ भक्ति क्रमशः बढती हुई प्रेम, आसक्ति और व्यसन दशा को प्राप्त होती है। श्रीकृष्ण के प्रति व्यसन अवस्था प्राप्त होने पर जीव कृतार्थ हो जाता है। भक्त के मन में यह दृढ विश्वास रहना चाहिए कि हर स्थिति में भगवान्‌ अपने भक्त की रक्षा करेंगे ही। यह सभी भगवत्‌ शास्त्रों का गूढ़तम रहस्य है।

(१२) जलभेद – इस ग्रन्थ में बताया गया है कि जिस प्रकार जल, आश्रय भेद से गुण दोष उत्पन्न करने वाला हो जाता है, उसी प्रकार भगवान्‌ के गुण भी वक्ताओं के आधार पर भिन्न-भिन्न प्रभाव करने वाले बनते हैं। इसलिए सदैव उत्कृष्ट भगवदीय वक्ताओं से ही भगवत्‌ गुण सुनना चाहिए।

(१३) पंचपद्यानि – इस ग्रन्थ में महाप्रभुजी ने भगवत्‌ -गुणों के भिन्न-भिन्न स्तरों के पाँच प्रकार के श्रोताओं की चर्चा की है।

(१४) सन्यासनिर्णय – श्री महाप्रभुजी ने इस ग्रन्थ में बताया है कि भक्ति ठीक से हो सके, इस दृष्टि को रखकर साधनावस्था में सन्यास लेना उचित नहीं है। इस अवस्था में साधक भटक सकता है। भक्ति दृढ़ होने के बाद भगवत्‌ विरह के परमानन्द में मग्न रहने की दृष्टि से सन्यास लेना ही प्रशंसनीय है। अपने घर में भगवत्सेवा और कथामय जीवन जीना उत्तम है। यदि यह संभव न हो तो व्यसन की दशा में, भक्ति की दृढ स्थिति में, सन्यास ग्रहण करना मध्यमाधिकार का द्योतक है।

(१५) निरोधलक्षणम्‌ – श्री महाप्रभुजी स्पष्ट करते हैं कि भगवान्‌ के अनवतारकाल में भगवत्सेवा और भगवत्कथा के द्वारा प्रपंच विस्मृति एवं भगवद्‌ आसक्ति रूप निरोध सिद्ध होता है। निरोध साधन अवस्थाकी सर्वोत्कृष्ट स्थिति है। इससे बढ़कर न तो कोई मंत्र है, न स्तोत्र है, न कोई विद्या है और न कोई तीर्थ है। यह सर्वोत्कृष्ट है।

(१६) सेवाफलम्‌ – पुष्टिभक्त भगवत्सेवा द्वारा किसी भी फल की कामना नहीं करता, फिर भी भगवद्‌ अनुभूति के अनेक प्रकारों में भक्त को सेवा फलरूपता की प्रतीति होती है। 

यह फलरूपता तीन प्रकार से होती है-

 (१) अलौकिक सामर्थ्य- यह जीवन्मुक्ति की स्थिति है। भूतल पर भगवत्सेवा करते – करते सभी इन्द्रियों से भगवद्‌ अनुभूति के रूप में जीव में जो अलौकिक सामर्थ्य प्रकट होता है, वही पुष्टिमार्गीय जीवन्मुक्ति है।

 (२) सायुज्य – यह भगवत्सेवा की फलात्मिक अनुभूति है। इसमें देह-गेह-संसार आदि अन्य किसी की भी स्फूर्ति न होकर निरन्तर प्रभु से ही आन्तर संयोग की प्रगाढ़ रसात्मक अनुभूति होती है।

 (३) वैकुण्ठादि भगवद्धाम में भगवत्सेवोपयोगी देह की प्राप्ति। भौतिक देह छूट जाने पर भक्त को भगवद्‌धाम में भगवत्सेवा के लिए सेवोपयोगी नवीन देह प्राप्त होता है। यह नवतनुत्व भी भगवत्सेवा में प्राप्त होने वाला फल है। यह ब्रह्मभावापत्ति है, इसमें भगवद्‌-सेवा के सुअवसर की प्राप्ति होती है।

महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य ने अपने षोड़श ग्रन्थों में दृढतापूर्वक यह सुनिश्चित सिद्धान्त प्रतिपादित किया है कि पुष्टि जीवों के लिए पुष्टि पुरूषोत्तम भगवान्‌ श्रीकृष्ण की सेवा, ब्रजभक्तों के भावों का भावनात्मक अनुसरण करते हुए करना, अपने तन-मन-धन का भगवान्‌ श्रीकृष्ण की सेवा में विनियोग करना (लगाना) और जब भगवत्सेवा का समय न हो तो उस अवसर पर भगवद्‌ भाव को बढ़ाने वाली भगवत्‌ कथा का श्रवण-मनन-कीर्तन करना, ही प्रथम और परम कर्त्तव्य है। 

उपर्युक्त ग्रन्थों के अतिरिक्त महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य ने अन्य अनेक ग्रन्थों और स्तोत्रों की रचना की है जिनमें – पंचश्लोकी, शिक्षाश्लोक, त्रिविधनामावली, भगवत्पीठिका आदि ग्रन्थ तथा मधुराष्टक, परिवृढाष्टक, गिरिराजधार्याष्टक, श्रीमद्‌भागवत जी पर सुबोधिनी जी का भाष्य ब्रह्म सूत्र पर अणु भाष्य आदि प्रसिद्ध है।

८४-२५२ वैष्णवन की वार्ता

श्रीगोकुलनाथजी द्वारा रचित ८४-२५२ वैष्णव वार्ता में श्रीमहाप्रभुजी एवं श्रीगुसांईजी के मुख्य ८४-२५२ वैष्णवों के जीवन के प्रेरक प्रसंगो का उल्लेख है। जिसमें उन वैष्णवों पर किस प्रकार श्रीठाकुरजी एवं गुरू की कृपा हुई और उन वैष्णवों ने आपश्री की आज्ञा अनुरूप किस प्रकार सेवा करते हुए जीवन यापन किया उसका विस्तृत विवरण है। 

इन वार्ताओं का गूढ़ार्थ श्रीहरिराय महाप्रभु ने भावप्रकाश के द्वारा प्रकट किया है।

शिक्षापत्र

श्री हरिराय महाप्रभुजी द्वारा अपने ज्येष्ठ भ्राता श्री गोपेश्वरजी को लिखे गए शिक्षाप्रद पत्रों को ही सम्प्रदाय में शिक्षापत्र ग्रन्थ नाम से जाना जाता है।

संख्या में इकतालिस पत्र होने से यह ग्रन्थ इकतालिस शिक्षापत्र के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी यह ग्रन्थ हमारी समस्त समस्याओं का समाधान है। इस ग्रन्थ में पुष्टिमार्ग के आधारभूत सिद्धान्तों का समावेश है।

इन इकतालिस शिक्षापत्रों पर श्री गोपेश्वरजी ने टीका लिखी है अतः इसे इकतालिस बड़े शिक्षापत्र कहा जाता है।