Shri Vithalnath Ji (श्री विट्ठलनाथजी)
श्री विट्ठलनाथजी (श्री गुसांईजी)
वन्दूं श्री विट्ठलवर सुन्दर नव घनश्याम तमाल।
जगतीतल उद्धार करवा प्रगट्या परमदयाल॥
श्रीगुसांईजी का प्रागट्य संवत् १५७२ पौष कृष्णनवमी शुक्रवार के शुभदिन चरणाट में हुआ।
पाण्डुरंग श्री विट्ठथलनाथजी की आज्ञा से श्रीमहाप्रभुजी ने गृहस्थाश्रम स्वीकार कर विवाह किया तदुपरांत महाप्रभु श्री वल्लभाचार्यजी के यहाँ स्वयं प्रभु ही द्वितीय पुत्र श्री विट्ठलनाथजी के रूप में प्रकट हुए।
सम्प्रदाय में ऐसा उल्लेख मिलता है कि जब श्री विट्ठलनाथजी का प्रागट्य हुआ था तब श्रीनन्द, यशोदा, गोप, गोपी, सभी लीला सामग्री का आविर्भाव हुआ और उनके द्वारा ही श्री महाप्रभुजी के सन्मुख श्रीगुसांईजी का प्राकट्य महोत्सव मनाया गया। उसी समय शिव-ब्रह्मादि सर्वदेवतागण, गंधर्व, किन्नर, अप्सराओं ने अपनी-अपनी दिव्य कलाओं से प्रभु के प्रागट्य का उत्सव मनाया जिसका वर्णन श्री गोपालदसजी ने नवाख्यान में किया है।
महाप्रभु श्रीमद् वल्लभाचार्यजी द्वारा जो पुष्टि का बीज बोया गया था उसे पुष्पित, पल्लिवित एवं फलित श्री विट्ठलनाथजी ने किया। राग-भोग-श्रृंगार जो अत्यन्त ही लौकिक विषय हैं, उनका समावेश भगवत सेवा में कर आपने सेवा प्रणालिका को वृहद् स्वरूप प्रदान किया। आपश्री ने अपने पितृचरण श्री महाप्रभुजी के स्वरूप का वर्णन करते हुए श्रीसर्वोत्तमस्तोत्र की रचना की।
श्री गुसांईजी साक्षात पूर्ण पूरूषोत्तम के स्वरूप हैं। आपश्री के प्राकट्य के विषय में अग्नि पुराण में वर्णन प्राप्त होता है- वल्लभोहिअग्निरूपस्याद् विट्ठलपुरूषोत्तमः।
श्री विट्ठलनाथजी के सात पुत्र श्री गिरधरजी, श्री गोविन्दजी, श्री बालकृष्णजी, श्री गोकुलनाथजी, श्री रघुनाथजी, श्री यदुनाथजी एवं श्री घनश्यामजी तथा चार बेटीजी श्री शोभा बेटीजी, श्री यमुना बेटीजी, श्री कमला बेटीजी एवं श्री देवका बेटीजी हुए।